truth interpretation - 1 in Hindi Letter by Rudra S. Sharma books and stories PDF | सत्य मीमांसा - 1

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सत्य मीमांसा - 1

अपेक्षाओं का होना किसी भी संबंधी में, संबंध के लिए बीमारी होती हैं, बगैर अपेक्षाओं के कोई हमारी जरूरतों को हमारा संबंधी संबंध में पूरा करें तो ही, क्योंकि वो ही अपेक्षाएं पूरी होती हैं नहीं तो केवल आश्वासन रहता हैं अपेक्षाओं के पूरे होने का, जो अपेक्षाएं पहले से होती हैं उनके पूरे होते ही किसी दूसरे रूप में वो अपेक्षाएं वैसी की वैसी, उस संबंधी से जिससे पहले अपेक्षा थी और उसने उसे पूरी की, वो अपेक्षाएं, नए रूप में फिर आ जाती हैं, सोचो हमारी संबंध में कोई सी जरूरत हैं और हमें बिलकुल उम्मीद ही नहीं हैं कि कोई हैं भी उसको पूरी करने के लिए और कोई अपने आप निष्काम, बिना किसी बदले में अपेक्षा के उस जरूरत को पूरी कर देता हैं हमारा संबंधी, अगर हम संबंध को निष्कामना नहीं निभा सकते तो संन्यास घोषित कर दें बाकि संबंध के नाम पर कामनाओं की, जरूरतो की पूर्ति के लालच के लोभ से या हानी न हो इसके भय से, संबंध के नाम पर, प्यार के दान के पूजन के नाम पर लालच की वासना यानी कभी तृप्त नहीं होने वाली जरूरत को पूरी करना और हानि के डर से बचना, संबंध जैसे पवित्र प्रेम के, दान के पूजन के पर्याय का अनादर, जाने अंजाने अपमान करना बड़ी दयनीय और विवेक के आभाव में देखा जाए तो कोप का भाजन बनने की स्थिति हैं, आत्मनिर्भरता आवश्यकता हैं, किसी भी संबंध में जाने से पहले पूरी तरह खुद की अहम के अंदर, उसके अंतर्गत आने वाली आत्मा पर निर्भरता, सभी के शुभ, सभी की सुलभता, संबंध की शुद्धता, सुंदरता के लिए अनिवार्य हैं, सीधे कह दो कि हम अस्तित्व का असमर्थता के कारण नुकसान करने वाले प्रेत या राक्षस हैं यदि हम आप संबंध के आड़े अपनी जरूरतों की पूर्ति, आत्म निर्भरता नहीं होने की बीमारी को न केवल छुपा रहे हैं बल्कि संस्कार यानी आदत को, बीमारी को आत्म निर्भरता नहीं होने की ओर बढ़ा रहे हैं, मैं लिखता हूँ, जो जैसा अंदर हैं ज्यों का त्यों बिना किसी जालसाजी के, राग लपेट के उच नीच किए बगैर, सच को यानी अंदर और बाहर की स्थिति के प्रभाव को ज्यों का त्यों, बगैर असत्य यानी केवल कही सुनी बातों की अभिव्यक्ति के, शुद्ध अनुभव को, ज्ञान को, दान करता हूँ केवल उनको जिसको इसकी अहमियत, इसकी जरूरत हैं, इसका महत्व हैं और इसके बदले मुझे चाहिए यही यानी मौन की भाषा में या शुद्ध मौन की ज्यों की त्यों अभिव्यक्ति, तो सबसे दान को प्यार को निष्काम दे करके, निष्काम यही बदले में यदि हज़ार बार उनका मन हो तो वो लौटा दे, नहीं लौटाते तो रहने दे, यह संबंध रखता हूँ, मैं आत्म निर्भर हूँ, यदि कोई मुझे यह नहीं लौटाता तो भी ये मेरे पास पहले से सामर्थ्य, संस्कार यानी आदत मौजूद हैं इसलिए कोई इसके बदले ये नहीं लौटाए या यह कहे कि मेरी consistency नहीं हैं तो प्रेम पूर्ण मेरी ये पूजन, ये दान ये प्यार मैं करता रहूंगा और कोई इस मेरे निष्काम प्यार को अस्वीकार करके, मेरी साधना का अनादर अपमान करता हैं तो क्योंकि यह योग में, जुड़ने में बाधा हैं, ये परमात्मा को यानी प्रेम को, दान के प्यार के भाव को मना करना हैं इसलिए मैं इसे पाप नहीं बल्कि गलती के स्थान पर सभी का क्योंकि इससे अहित हैं अतएव गुनाह समझता हूँ,आप आज नहीं लौटा सकते, कल नहीं लौटाओगे पर आप क्या आपके संबंधी से किसी भी मध्यम से, यानी उसकी भाषा में, उसकी कर्म की भाषा में क्या संवाद ही नहीं करोगे कभी भी, ये तो खुद से जाने अंजाने द्रोह हुआ, हम सभी एक परिवार होने से पूर्व हमारा खुद से खुद का संबंध हैं और एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को एक दिशा में उसका निवेश करना ही, किसी के लिए भी संभव होता हैं एक समय इकाई पर और कोई भी जब ज्ञान के परिणाम स्वरूप यानी सात्विकता वश इतना ज्ञान यानी अनुभव ले लेता हैं कि उसको पता है कि, केवल एक ही दिशा में कोई भी अहम पूरी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा में निवेश कर सकता हैं और बाकी जगहों पर, बाकी दिशाओं की जरूरत उसको दूसरी दिशाओं के जो अहम हैं उनसे यानी उनके दान यानी प्यार से पूरी करनी होती हैं, और कोई विकल्प नहीं होता उनके पास भी कि जिस एक दिशा में वे हैं उस दिशा से दूसरी दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को थोड़ा भी समय के दायरे में हटाने का, तो यहीं समय के दायरे में सबकी सबसे जरूरत होती हैं और जैसे खून फेफड़े का काम नहीं कर सकता वैसे ही कोई किसी का काम नहीं कर सकता और समय के दायरे से परे यानी आकार को ही जो त्याग देता हैं वो स्वाभाविक रूप से सबसे पहले से ही जुड़ा है और वो स्वभाव यानी मूल में निरुद्ध चित्तता रख करके स्वाभाविकता को ही अपना लेता हैं, फिर वो काल चक्र में नहीं आता, वो समय से यानी अनंत आकारों के जाल से, भूत भविष्य और वर्तमान से, मूल यानी वर्तमान रूपी जड़ में अहम रूपी जल दे करके अपना, अंत रहित अहम से पहले एक हो कर, अहम से भी ऊपर हममें एकाग्र अर्थात् न केवल निर्वाण बल्कि महा परि निर्वाण को उपलब्ध हो जाता हैं, फिर न वो कभी था, न हैं और न ही कभी होगा, दरअसल जो भी आकार के दायरे में केवल हैं और जिनको निराकार का कोई अहसास, कोई ज्ञान ही नहीं और वो इसके लिए समर्थ भी नहीं वे एक दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा रख करके और बाकी सब उनकी तहत के जो अहम हैं उनसे प्रेम का यानी आत्म निर्भर होने के बाद भी लेन देन चाहते हैं क्योंकि वो प्रेम चाहते हैं, वो दान को पूजन को चाहते हैं, वो न केवल सही मार्ग पर हैं बल्कि यदि न केवल उनकी इकलौती दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा हैं बल्कि अच्छी यानी ऊंची ज्यादा गुणवत्ता और मात्रा हैं, इतनी कि वो निष्काम दे सकते हैं, तो वे ही सही रास्ते पर हैं, जिसमें उनका पूरे अस्तित्व का जिस दिशा में स्पष्ट लाभ यानी स्पष्टता सुलभता, सुकून है सुविधा हैं वो उस रास्ते पर हैं, मौन और मौन की और स्पष्ट एकाग्र और स्थिर हो कर किए जागरूकता पूर्वक न कि बेहोशी में शब्द दोनों यदि जिस मौन की अनुभव की ओर इशारे किए जा रहे, वो अनुभव हैं उसके पास जो उन इशारों से सही दिशा चाहता हैं तो द्वैत के द्वार से यानी अज्ञान से सब कुछ यानी सारा फायदा लेने की दिशा में वो हैं और व्यर्थ हैं यदि खुद से सामर्थ्य नहीं वास्तविकता को जानने पहचानने का तो शब्दों के या मौन के माध्यम से पहचानने का, सबसे बड़े लाभ को, लाभ के मूल को, सुख के चरम को, संबंध प्रेम दान पूजन उनके लिए नहीं हैं जो न आत्म निर्भर हुए हैं और न ही होना भी चाहते हैं और उल्टा आत्म निर्भर होने के स्थान पर एक दिशा के अंदर पूरी गुणवत्ता और मात्रा की में एकाग्रता और स्थिरता की, दूसरों को अपने आत्म निर्भर नहीं होना का दोषी मानते हैं जाने अंजाने, देखो सब कुछ, हर आकार की दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा जरूरी हैं, उस दिशा के अंदर किसी का भी न केवल जानने के बल्कि पहचानने के साथ भी, नियंत्रण के साथ भी बढ़ना जरूरत पूरे अस्तित्व के लिए रखता हैं और जो इसको जरूरी नहीं मानता, मान्यता नहीं देता खुद की, इसका मतलब मेरे अनुभव में यही है कि या तो जाने अंजाने वो जिस दिशा में हैं उस दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा की उपलब्धि उसने उतनी ऊंची नहीं करी, उतनी ज्यादा नहीं करी जितनी कि उसकी ऊंची या ज्यादा एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा की ऊंचाई हैं, जिसको वो मान्यता, जानते तो सभी हैं पहचानने के आभाव में नहीं दे रहा हैं, हम सब फायदे में पहले से है, हमारे पास अनंत अनंत समय यानी पैसे कह दो या लाभ, यह पहले से होता हैं पर जो लाभ को यानी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत और मात्रा को न सिर्फ जानता यानी ज्ञान अर्थात् अनुभव उसका रखता हैं, अनुभव तो सबको है बल्कि उसकी पहचान भी रखता हैं वहीं पूरे अस्तित्व के संतुलन सुख लाभ की दिशा में, साकार और निराकार दोनो अस्तित्व के पहलुओं के श्रेष्ठ की दिशा में हैं क्योंकि आकार द्वैत हैं और यदि यहां सब कुछ संभव हैं तो ऐसा भी कुछ हैं जो कि असंभव हैं क्योंकि सब कुछ संभव हैं, असंभव भी न सिर्फ संभव हैं बल्कि शाश्वत भी हैं उसकी संभावितता, और सभी दिशाओं में अस्तित्व का कोई एक अहम कभी भी एकाग्र और स्थिर एक साथ अलग अलग नहीं हो सकता, हा जड़ रूपी एक हिस्सा है जिसमे जल यदि यानी जल रूपी अहम को अर्थात् खुद को न्योछावर कर से तो पूरे अस्तित्व के न केवल श्रेष्ठ बल्कि वो सर्वश्रेष्ठ हैं यानी सर्वश्रेष्ठ मतलब अच्छे से अच्छा जितना भी हैं, आकार के दायरे में जितने अहम का है और आकार रिक्त ता में निराकार का वो श्रेष्ठ कर सकता हैं, तो एक दिशा में अपनी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को बढ़ाए और जब तक वो इतनी न हो जाए कि निष्काम उस दिशा में आप देना कर पाए किसी भी संबंध में, आकार यानी द्वैत के दायरे में मत आए, आत्म निर्भरता की पर्याप्तता के आभाव वाला खुद को घोषित कर दे और जो समझदार होंगे वो जरूर आपकी असमर्थता स्वाभाविक हैं इसको समझ जायेंगे और जो अनुभवी यानी अग्यानी होंगे वो आपकी असमर्थता नाजायज मानेंगे, वे जानते हैं जाने अंजाने पर मानेंगे नहीं क्योंकि वो नहीं मानते, वो इतनी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा की निरुद्ध चित्तता की दिशा में जरूरत नहीं समझते इसी लिए आपको आपकी स्वाभाविक दिशा से जाने अंजाने हटाने का गुनाह कर रहे हैं, शरीर नश्वर हैं नहीं रहेगा पर जो रहेगा वो जरूरी हैं और यदि हमारी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा नहीं हैं इस दिशा में, हम शरीर की सफाई भी नहीं कर सकते तो लायक यानी जिसकी इस दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की इतनी गुणवत्ता और मात्रा होगी वो हमको हमारी साधना से हटाए बिना हमारी साफ सफाई के ऐसे इंतजाम मुफ्त में यानी हमारी काम की क्योंकि उसको जरूरत की समझ होगी इसलिए ऐसे यंत्र या जैसे परमात्मा ने स्वाभाविक खून छानने का यंत्र दिया हैं ऐसे साफ सफाई की भी वो व्यवस्था हमारी पूजन को, हमारे दान को हमारे प्यार को मान्यता दे कर कर देगा, यदि आपको आपके व्यक्ति को नहीं खोना है तो इतनी एकाग्रता और स्थिरता बढ़ाइए की हमारा अहम यानी यह शरीर भी बच जाए जैसे पार्वती ने गणेश की चेतना उसी शरीर में लौटा दी थी, आपकी एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा किसी एक पूरे अस्तित्व के लिए जरूरी, ऐसी दिशा में यदि होगी तो जरूर समर्थ जाने अंजाने आपको उस दिशा की एकाग्रता और स्थिरता के बदले शरीर की स्वच्छता की दिशा में देगा, हमारी तो मजबूरी है, हम जिस दिशा में हैं उसमें रहने के लिए जरा भी ध्यान नहीं हटा सकते अपनी साधना से, और फिर भी लायक यदि शरीर को स्वच्छ नहीं रखना चाहता तो इसका मतलब हैं कि या तो शरीर की स्वच्छता इतनी भी जरूरी नहीं जितना कि आप जोर दे रही हैं, अस्तित्व के लिए और नहीं तो आपकी इच्छा इतनी ही जरूरत रखती हैं तो जैसे परमात्मा यानी जिस किसी ने खून को बहाने की व्यवस्था की हैं शरीर में हमारे, और अभी भी जब हम हमारी दिशा में हैं बहाए जा रहा है ऐसे ही आप भी अपने आप या तो शरीर की सफाई की व्यवस्था उस परमात्मा के प्रभाव से करवा दो जो कि आपको सफाई करवाने को कह रहा हैं, इसी वो सही में परमात्मा हैं तो साबित करे, परमात्मा खून छानना, शरीर के दूसरे काम करना इनके लिए कहता नहीं, हम नहीं कहते किसी से कि कोई हमको लिखें या हमारी जरूरत को पूरी करे, जिस परमात्मा के प्रभाव से, हमारा यह अनुभवों की ज्ञान की हकीकत की अभिव्यक्ति है वो प्रभाव यानी हजारे अहम के पीछे के हम खुद ब खुद करते हैं, हमारी जरूरत की पूर्ति।

क्या आप इस तरह लिख करके परमात्मा की पूजन, एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा में, एक दिशा, उस दिशा में सामर्थ्य को बढ़ाना कर सकती हैं, जिसे पूर्ति का प्रभाव बढ़ा रहा हैं नहीं यदि तो यह जरूरी हैं क्योंकि अस्तित्व को आपके तरीके से ही नहीं हमारे तरीके से भी पूजन करवाने की जरूरत हैं, तभी वो करवा रहा हैं, करवा भी रहा हैं, सबसे बड़ा जाने अंजाने किया जाने वाला अहित यानी अपराध हैं जहां तक हमारा अनुभव है, किसी को भी उसकी समाधी, उसकी एकाग्रता से, उसकी निरुद्ध चित्तता की दिशा से, उसके ध्यान को हटाना इसको बंद करने की कृपा कीजिए यदि हो सके तो अन्यथा यदि नहीं कर पा रही तो उस प्रभाव से प्रार्थना पूजन प्रेम की, दान की ज्ञान की एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को बढ़ाए उस दिशा में जो आपकी साधना की दिशा है जाने अंजाने 

हा तो मैं कह रहा था कि सबके लिए उस दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा के निवेश की जरूरत अनुभव करने की जरूरत हैं जिस दिशा में हम एकाग्र हैं, या दूसरे एकाग्र हैं, निरुद्ध चित्तता की दिशा में हैं और यह ऐसे होगा कि सबको सुविधा उस दिशा में दे करके, स्पष्टता यानी सुख उस दिशा में दे कर्ज एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा उस दिशा में दे करके जैसे कृष्ण प्रेम की दिशा में सुख हैं शाश्वत सुख हैं यह बताते हैं बांसुरी बजा के, वो किसी को बुलाते नहीं कि आओ और सुनो बल्कि हजारे पास कोई विकल्प नहीं बचता हम बस क्योंकि हमने एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा महसूस नहीं की होती इतनी तो इतना सुख, इतना फायदा जाने अंजाने हमारा ध्यान जब देखता हैं तो ध्यान टिक नहीं रुक नहीं पाता क्योंकि ध्यान की यानी हमारी केवल एक ही भूख, हमारे लिए तो केवल एक ही सुख है, एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा पर्याप्तता में, हर संबंधित दिशाओं में यानी हिस्सों में हमारी समिष्टी के ..

मै नहीं पुकारता किसी को की मेरे लेखों को पढ़ो या इनके बदले कोई मूल्य दो, जो सच में मुमुक्षु होगा वो इनके लिए कुछ भी, कोई भी कीमत देने को राजी होगा और हमको ये कही दूर से दूसरे से नहीं मिले और मिले भी तो प्रेम को, दान को प्यार को व्यक्त करने के लिए, उस परमात्मा की पूजन करने के लिए, उसके मेरे संपर्क में आने के लिए, उसके अस्तित्व में होने के लिए आभार के लिए अपनी स्वाभाविक ध्यान की दिशा ही यही कर ली, अब जो हो उसकी इस पूजन का समर्थक हैं, जो जो यह महसूस कर सकता हैं कि उसको ऐसे जैसे उसने परमात्मा को पूजा, उसकी पूजन करना अहमियत रखता हैं जरूरत रखता हैं जरूरी हैं वो जरूर हमारे काम की एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को मान्यता देगा, और जो उससे जो हमारि स्वाभाविक दिशा हैं, संबंध के प्रति उसकी स्वाभाविक दिशा के संबंध के प्रति जागरूक होगा वो हमारे निष्काम प्रेम, दान पूजन का पारीतोषित हमको उसकी स्वाभाविक एकाग्रता और स्थिरता की दिखा में उसकी गुणवत्ता और मात्रा यानी कीमत दे करके व्यक्त करेगा बिना बदले में कुछ चाहें जैसे बगैर बदले में कुछ चाहें हम इस दिशा में एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा यानी कीमत की पर्याप्तता का निवेश कर रहे हैं।

अन्यथा हमको हमारे काम के बदले कीमत मांग करके हमारे काम की गुणवत्ता और मात्रा को कम नहीं करना, यह कोई लालच या हानी की दिशा की निवेश की गुणवत्ता और मात्रा यानी कीमत नहीं हैं एकाग्रता और स्थिरता की, और यदि लाभ और हानि की ही दिशा में हमको एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा को निवेश करना होता तो हम इस काम को कीमत देने के लिए ही करते।

हमारे शरीर को मिट जाने दो कोई फर्क नहीं पड़ता, हम तो न कभी हुए क्योंकि कभी नहीं दे, और क्योंकि अभी भी नहीं हैं, क्योंकि देने वाले ने लीला के लिए क्रीड़ा के लिए हमको शरीर दिया हैं, यह शरीर उसकी जरूरत हैं हमारी नहीं, यदि उसको हमारी दिशा की एकाग्रता और स्थिरता की कीमत नहीं हैं तो उसके तंत्र में हमारा साथ हमारी उपस्थिति शायद ज्यादा दिनों की नहीं, यहां सब अच्छे थे सब की पूजन करके जैसे जिस तरीके से बनी करके हम बहुत आभारी हैं और क्योंकि ब्राह्मण हैं तो ज्ञान के, अनुभव के प्यार के पुजन की एकाग्रता और स्थिरता की गुणवत्ता और मात्रा यानी कीमत को इस दिशा से हम अर्थोंपर्जन या अन्य दिशाओं यानी बाहरी साफ सफाई के लिए भी नहीं घटाएंगे, यह पूरे अस्तित्व के श्रेष्ठ के लिए अहितकर होगा।

हम ब्राह्मण हैं ज्ञान विज्ञान का अनुशीलन पूजन प्रचार प्रसार का ही हमको मनु ने कर्म दिया हैं, हमारे लिए आर्थोपर्जन भी वर्जित हैं इसलिए नहीं कि हम नहीं कर सकते बल्कि इसलिए कि वो वैश्य का कर्म है और मनु धर्म के पर्यायवाची हैं, मनु को मनुस्मृति को कोई मान्यता दे न दे, जन्म कर्म से ब्राह्मण को अनिवार्य रूप से देना हैं, पांच घर से विनम्रता पूर्वक दान नहीं मिले तो भूख से शरीर त्याग देना श्रेष्ठ है पर किसी को अपने काम का भाव बताना, इसलिए कि वो हमारी सामान्य जरूरतों को भी पूरा करें यह पापाचार हैं।

धर्मो रक्षति रक्षित:

धर्म की रक्षा की दिशा में एक भी काम, ईश्वर यह नहीं कहता कि कर्म मत करों, उसी दिशा में कर्म करों जिस दिशा में सर्वसमर्थ चाहता हैं कि कर्म हो, और वो हमारे अस्तित्व का मूल हैं और अंत भी हैं यानी वो हैं जो न कभी जन्मा और न कि कभी अंत को प्राप्त होगा, हमारी मान्यता के अनुसार क्योंकि वो नापा नहीं जा सकता, हमारे में सामर्थ्य नहीं की उसके प्रभाव के अलावा उसके ओर छोर को नाप पाए, हा उसके ओर छोर दे जो प्रभाव उसका हम पर आ रहा हैं और हमारे सफलता पूर्वक सिद्ध हुए कर्मों के या जिन कर्मों को सिद्ध यानी सिद्धि जिनकी करने का हमारे पास हर समय इकाई पर विकल्प रहता हैं यानी हम चाहे तो कर सकते अन्यथा नहीं कर सकते हैं, जैसे उस अस्तित्व के नगण्य हिस्से यानी हमारी पहचान के सटीक आधारों में से एक हमारा काम होता हैं, उसके भी परिचय का आधार, योग्य आधार हमारे द्वारा सिद्ध हुए काम हैं, वो और कोई नहीं बल्कि प्रभाव हैं उसका, हम सब की समिष्टी की जिस चलन में यानी जिस दिशा में ज्यादा फायदा यानी मान्यता है क्योंकि स्वाभाविकता हैं उधर ही उसकी दिशा, इसके काम के परिणामों की इच्छा, परिणामों की दिशा है।

कर्मों की भाषा में असमर्थता वश यानी स्वाभाविक कारण से यदि कोई, जायज़ कारण से कोई असहयोग करेगा अपने अस्तित्व के किसी भी हिस्से का, तो जैसा कर्म वैसा फल जरूर मिलेगा मगर उनके काम को भी अधिक से अधिक मान्यता सामर्थ्य होने से देगा तो ईश्वर खुद उसकी गवाही, उसके लिए आ करके कहेगा।

अंत में बस इतना कहूंगा तत् त्वं असि आप सब पूजन के पात्र हैं पर पूजन को नहीं देख सकने से आपकी पूजन अमान्य नहीं हो जाती।

२८/०९/२५, १६:२२ - .